हिमाचल की आपदा और नागरिकों से आग्रह
(१) बाढ़ क्षेत्रीकरण में ढील देना आपदाओं को निमंत्रण देने जैसे है
अलग अलग विशेषज्ञों द्वारा ये बात बार-बार उठायी जा चुकी है, पर फिर भी नज़र-अन्दाज़ करी जाती है। हर नदी का एक बाढ़-क्षेत्र होता है और उस क्षेत्र में निर्माण करना जोखिम की बात है। प्रशासन के द्वारा बाढ़ क्षेत्र में निर्माण करने की अनुमति देना उचित नहीं है। ये नागरिकों का दायित्व नहीं होना चाहिए, बल्कि ये प्रशासन का दायित्व होना चाहिए की नदियों के बाढ़ क्षेत्र में कोई निर्माण ना हो, ख़ास कर कोई भी सार्वजनिक निर्माण तो क़तई ना हो।
बाढ़ क्षेत्रीकरण से कई लोग पहले से वाक़िफ़ होंगे। ये सिर्फ़ पहाड़ी इलाक़ों में ही नहीं, पूरे देश में ज़रूरी ही। इसके बारे में और जानने के लिए ये लेख पढ़ें (अंग्रेज़ी में)। ये ट्वीट भी ज़रूर देखें: भूविज्ञान विशेषज्ञ ने मनाली के एक विडीओ में ढेर होती हुई रोड को "classic case of bank undercutting" बताया। विशेषज्ञ इस तरह की ग़लतियों को साफ़-साफ़ पकड़ लेते हैं। सवाल ये है कि प्रशासन सही विशेषज्ञों से राय क्यों नहीं लेता है?
(२) पर्यावरण प्रभाव आकलन बहुत ज़रूर है, इसका विलयन निंदनीय है
पिछले कई सालों में भारत में पर्यावरण प्रभाव आकलन की प्रक्रिया को बाक़ायदा कमजोर और निरर्थक किया गया है। सतही तौर पर इससे "ईज़ ओफ़ बिज़्नेस" यानि व्यापार की आसानी में फ़ायदा होता है। पर प्राकृतिक आपदाओं के सामने इस तरह की बातों का कोई मतलब नहीं रह जाता। हर नागरिक को इस विलयन की निंदा करनी चाहिए। अपनी क्षमता अनुसार इस आकलन ही नहीं बल्कि सभी पर्यावरण हेतु नियमों को सशक्त करने के लिए प्रशासन पर दबाव डालना चाहिए। ऐसे आकलन और सशक्त कर के, ना सिर्फ़ बाढ़ क्षेत्रिकरण, बल्कि ऐसे ही और कई सिद्धांतों को ध्यान में रखकर ही निर्माण कार्य की अनुमति मिलनी चाहिए।
इस गम्भीर मामले पर कई गहरे विश्लेषण इस वेब्साइट पर उपलब्ध हैं।
(३) जलवायु परिवर्तन के बारे में जागरूकता बढ़ानी होगी
नदियों के बाढ़ क्षेत्र, या वन-कटाई, या फिर अंधाधुंध सड़क निर्माण -- इन सब के बारे में पहाड़ी नागरिकों में काफ़ी जागरूकता है। इस जागरूकता को बनाए रखना और इसे अमल में लाना बहुत ज़रूरी है। परंतु एक और अवधारणा (कॉन्सेप्ट) है जिसे समझना बहुत ज़रूरी है -- वो है जलवायु परिवर्तन। नागरिकों के बीच इस समस्या की जागरूकता बढ़ाना बहुत ज़रूरी है। पृथ्वी के वायुमंडल में बढ़ती ऊष्म-संचयी गैसों की बढ़ती मात्रा के कारण जलवायु परिवर्तन हो रहा है। ऊष्म-संचयी गैसों के दो प्रमुख उदाहरण हैं -- कार्बन डायआक्सायड और मेथेन। पर सिर्फ़ यही दो नहीं है। इस रेखाचित्र को ध्यान से देखिए:
Source: NOAA |
मोटी काली रेखा पृथ्वी के वायुमंडल में बढ़ती ऊष्म-संचयी गैसों की मात्रा दर्शाती है। ये मात्रा साल-दर-साल बढ़ती जा रही है और आने वाले कई सालों तक बढ़ती रहेंगी। इस का मतलब है कि जलवायु परिवर्तन के कारण मूसलाधार बारिश होने की सम्भावना बढ़ रही है और आने वाले कई सालों तक और बढ़ती ही रहेगी। यदि इसे समझे बिना काम चलाने की कोशिश की तो बाढ़ क्षेत्रीकरण या कोई भी पर्यावरण प्रभाव आकलन पूरी कोशिशों के वावजूद असफल होंगे।
ये एक बहुत ही चिंताजनक स्थिति है और इस संकट की पूरी जानकारी साफ़ शब्दों में नागरिकों तक पहुँचाना ज़रूरी है। यदि पुराने डेटा के हिसाब से बाढ़ क्षेत्रिकरण किया जाएगा, तो उसे पूरी तरह से लागू करके भी ऐसी आपदाओं का सामना करना पड़ेगा।
ये समस्या सिर्फ़ हिमाचल प्रदेश या भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में बाढ़ ला रही है। पिछले कुछ ही दिनों में स्पेन के जाराग़ोज़ा शहर में भारी बारिश और बाढ़ आयी है। अमरीका के वर्मांट इलाक़े में भी बाढ़ आयी है। और ये हाल ही के कुछ उदाहरण हैं। जलवायु परिवर्तन से पूरी दुनिया में जान और माल के नुक़सान हो रहे हैं। ये भी समझना होगा कि जलवायु परिवर्तन से सिर्फ़ मूसलाधार बारिश या बाढ़ ही नहीं, बल्कि ऊष्म लहरें और चक्रवात भी बढ़ रहे हैं। इस समस्या के पीछे के वैज्ञानिक तथ्य और इसके लिए कुछ समाधान उपलब्ध हैं। परंतु नागरिकों और प्रशासन में इसके प्रति पर्याप्त जागरूकता नहीं है।
जलवायु परिवर्तन के बारे में और जानकारी के लिए आप इस लिंक पर दिए लेखों को पढ़ सकते हैं। किसी भी लेख पर सवाल भेज सकते हैं, मैं पूरी कोशिश करूँगी की हिंदी में सरल और साफ़ शब्दों में उत्तर दूँ। डाउन टू अर्थ मैगज़ीन की वेब साइट पर भी जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित हिंदी में बेहतरीन लेख उपलब्ध हैं।
और आख़री में सबसे ज़रूरी बात:
(४) "विकास" शब्द की परिभाषा बदलनी होगी
पिछले कुछ सालों में हिमाचल प्रदेश ही नहीं पूरे देश में "विकास" शब्द की परिभाषा को एक बहुत ही संकीर्ण स्वरूप दे दिया गया है। सिर्फ़ रोड या ब्रिज बनाने या जीडीपी बढ़ाने को विकास कहना एक बहुत ही सतही और तुच्छ सोच है। यदि हम इसी तरह से काम चलाते रहे, तो इस तरह का विकास आगे भी यूँ ही बाढ़ों में बहता रहेगा। ये सच है कि मदद और बचाव का काम भी सड़कों और पुलों से हो रहा है। सड़कों को पुलों पर आधारित "विकास" ग़लत नहीं है, पर बेहद सीमित और सतही है।
असली विकास तब होगा जब सड़क और पुल सही ढंग से बनाए जाएँगे, और साथ साथ हिमाचली और भारतीय लोग और जागरूक होकर प्रजातंत्र में नागरिक होने का सच्चा परिचय देंगे। पर इसके लिए पहले उन्हें प्रशासन से नागरिक होने का अधिकार और मान्यता मिलनी चाहिए। पिछले कई सालों में सरकार का रुख़ विशेषज्ञों की सलाह से दूर होता जा रहा है। ऐसे नज़रिए से देश आगे नहीं बढ़ सकता है।
हिमाचल और भारत के नागरिक कुछ ज़रूरी और लाभदायी कदम उठा सकते हैं:
👉 पर्यावरण प्रभाव आकलन को सशक्त करने की माँग कीजिए -- इसमें बाढ़ क्षेत्रिकरण सम्मिलित होना चाहिए
👉 IMD की अलर्ट्स पर ख़ास ध्यान दीजिए
👉 जलवायु परिवर्तन के बारे में जागरूकता बढ़ाइए
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Thank you for this Shivangi. Suvrat sent me the link to your blog. I live in Uttarakhand. I need help with locating relevant literature regarding the history of the monsoon, paleo intensities and so on. How can I get in touch with with you in this regard. Please do help. Thank you. Theo
ReplyDeleteMy email id is etheophilus@gmail.com
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