जलवायु परिवर्तन

जलवायु परिवर्तन (climate change) के बारे में अक्सर चर्चा होती रहती है। क्योंकि मैं एक भूवैज्ञानिक हूँ तो मैंने जलवायु परिवर्तन के बारे में कक्षाओं और किताबों से एक बहुत अलग-से नज़रिए से सीखा है। मेरी अपना अध्ययन एक ऐसे अंतराल के जलवायु परिवर्तन के बारे में है (११०००-५००० साल पहले) जिसमें ज़्यादातर लोगों को कोई रुचि ना हो। धरती पर (और वो भी अफ़्रीका के सहारा रेगिस्तान में) आज से ११००० साल पहले क्या हुआ, इससे भला हमें क्या मतलब? मतलब है। हम जब भी भविष्य की बात करते हैं तो हम जलवायु  मॉडलों (models) का उपयोग करते हैं।इन जलवायु मॉडलों के परीक्षण के लिए अतीत की तरफ़ देखना ज़रूरी है।

ख़ैर, किसी वैज्ञानिक को बार-बार अपनी रुचि और अपने अध्ययन की तरफ़ भटकना नहीं चाहिए, लोग ऊब सकते हैं। ये भी ध्यान रखना ज़रूरी है की हमारा शोध और हमारा अध्ययन समाज, देश और दुनिया को कैसे लाभ पहुँचाता है। मुझे आज के दौर के जलवायु परिवर्तन के बारे में बातें करने में काफ़ी रुचि है, क्योंकि मुझे उससे ये समझने का मौक़ा मिलता है की जनता हमारे विज्ञान के बारे में क्या सोचती है और उससे किस तरह के जवाब माँगती है। लोगों के मन में क्या सवाल हैं, उनकी क्या चिन्ताएँ है, उनकी क्या धारणाएँ हैं?

मुझे ये बात काफ़ी दिलचस्प लगती है कि लोग अक्सर जब जलवायु परिवर्तन के बारे में बातें करते हैं (वैसे तो ऐसे लोग बहुत कम ही मिलते हैं!) तो वह भविष्य काल की बात करते हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण ऐसा होगा, वैसा होगा। सबको बताया गया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण आने वाली पीढ़ियों को काफ़ी नुक़सान होगा। ये दृष्टिकोण सही तो है पर आधी-अधूरी समझ दर्शाता है। यदि आपको अपने आने वाली पीढ़ियों की चिंता है, तो वो बहुत सही है, पर आपको अपनी ख़ुद की चिंता क्यों नहीं है? किसी ने ये तो नहीं कहा की सिर्फ़ आने वाली पीढ़ियों को ही तकलीफ़ होगी? जलवायु परिवर्तन के कारण नुक़सान तो शुरू हो चुके हैं। हम अपने-अपने जीवन में भी ये नुक़सान सह रहे हैं और सहते रहेंगे। तो सिर्फ़ भविष्य, वो भी दूर के भविष्य, की चिंता ना कीजिए। आने वाले -१० साल का भी सोच सकते हैं।

दूसरी बात जो काफ़ी दिलचस्प लगती है वो ये की लोग जलवायु परिवर्तन के बारे में ऐसे बात करते हैं जैसे कि (भविष्य में) क़यामत जाएगी। आसमान फट जाएगा, धरती टूट जाएगी। सागर के लहरें सब कुछ तबाह कर देंगी। इतनी गरमी होगी की सब भस्म हो जाएँगे। बाढ़ और सूखे के कारण सब नष्ट हो जाएँगे। मानव जाति लुप्त हो जाएगी, सृष्टि का अंत हो जाएगा। कुछ हद तक सही है, पर वो हद आपके मन में कहाँ है, ये भाँपना बहुत मुश्किल है। अजीब दुविधा है, मैं आपको जलवायु परिवर्तन के बारे में बताऊँ या ना बताऊँ, आपको डराऊँ या ना डराऊँ? मुझे डर जगाना अच्छा नहीं लगता। भय के आधार पर लिए गए निर्णय अक्सर ठीक नहीं होते। पर सतर्क तो होना पड़ेगा।

दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन को लेकर गहन चर्चा हो रही है। हमारे देश में भी होनी चाहिए। पर यदि अंग्रेज़ी भाषा में बड़े बड़े तकनीकी शब्द इस्तेमाल करके लोगों को इस वार्तालाप से भगाते रहे, तो इस इंतेज़ार में बैठे ही रह जाएँगे कि देश इस गम्भीर समस्या के बारे में उजागर होगा और एकजुट होगा। मेरी गुज़ारिश है -- आपके मन में जलवायु परिवर्तन को लेकर जो सवाल उठते हैं वो नीचे टिप्पणी (comments) में लिखकर भेजिए। मैं जितना जानती हूँ, उसके आधार पर सब से सही और उपयोक्त उत्तर देने की कोशिश करूँगी। हम अक्सर जटिल वैज्ञानिक मामलों से भागते हैं पर सिर्फ़ इसलिए नहीं क्योंकि हमने एक मानसिक आलस पैदा कर लिया है। इसलिए भी क्योंकि ये विषय समझना मुश्किल है, और जब तक कोई (कम से कम प्रारम्भिक कोशिशों के दौरान) सीधी तरह से नहीं समझाता, तब तक रुचि नहीं आती। और किस के पास इतना वक़्त है की एक ऐसे मुश्किल विषय के तकनीकी साहित्य में हाथ-पैर मारें? 

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